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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4197
आईएसबीएन :0000

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र

सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह


समुद्र को यों अचल, स्थिर माना जाता है। फिर भी वह गतिविधियों से रहित नहीं रहता। उसके विभिन्न स्वरूप भी बनते रहते हैं। ऊँची-नीची लहरें, ज्वार-भाटे, तूफान, भँवर आदि के कारण वह चंचल भी दिखाई पड़ता रहता है। सूर्य की ऊर्जा एक है। अपनी सौर मण्डल परिधि में वितरित होती रहती हैं, पर उस एकरसता में भी अन्तर आता रहता है। समीपवर्ती बुध अग्नि पिण्ड की तरह तपता है, जब कि मध्यवर्ती दूरी वाले पृथ्वी, मंगल जैसे ग्रहों में सहज तापमान रहता है। दूरवर्ती नेपच्यून, प्लूटो जैसे ग्रह सदा शीतल ही रहते हैं। उन तक सौर ताप स्वल्प मात्रा में ही पहुँचता है। परब्रह्म की एकता, अखण्डता और समस्वरता में कोई व्यवधान नहीं पड़ता, पर परिस्थितियों के अनुरूप उसकी विराट् सत्ता हलचल रहित नहीं होती। उसकी इच्छा एवं व्यवस्था को पूरा करने के लिए विविध माध्यम भी अपना-अपना काम करते रहते हैं। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की त्रिविध प्रक्रियाएँ तो अपने ढंग से चलती ही रहती हैं। फिर भी समय-समय पर बादलों का उठना, बरसना, मेघों का कड़कना, चमकना, तूफान, अन्धड़, चक्रवात जैसे दृश्य भी प्रकृति क्षेत्र में दीख पड़ते हैं। यों ब्रह्म की तरह प्रकृति को भी शान्त और व्यवस्थित माना जाता है। पवन सर्वदा एक नियत प्रवाह में बहता है; किन्तु उसमें भी यदा-कदा जहाँ-तहाँ भयंकर चक्रवात और तूफान उठते देखे गये हैं। ऋतु प्रभाव से उसका तापमान भी न्यूनाधिक हो जाता है। इसी को कहते हैं एकता के बीच अनेकताओं का रहना। अनेकताओं के बीच एकता के दर्शन करना। पृथ्वी गोल है फिर भी उसमें पर्वतों, खंदकों की कमी नहीं। द्वीपों महाद्वीपों के कारण वह छिन्न-भिन्न एवं अनेक रूपों में बँटी हुई भी दीखती है। इसे नियन्ता की, उसकी इच्छा या व्यवस्था की विचित्रता ही कह सकते हैं।

परबह्म एक है। उसे विराट् विश्व के रूप में प्रत्यक्ष रूप में भी देखा जा सकता है। भूलोक अथवा ब्रह्माण्ड उसकी प्रत्यक्ष छवि है। इस विशालता में चलती रहने वाली विभिन्न हलचलों के क्रियान्वयन में उसकी विभिन्न सामर्थ्ये काम करती रही हैं। उसी प्रकार जैसे कि शरीर के अनेक अवयव मिलजुलकर जीव चेतनाओं के अनुशासन में काम करते रहते हैं। प्रकृति में ताप, ध्वनि और प्रकाश की शक्तियाँ सक्रिय पंचतत्त्वों, पाँच प्राणों का अपना एक विशिष्ट परिकर है, जो जीवधारियों के उत्पादन, अभिवर्धन में कार्यरत रहता है।

विश्व व्यवस्था के चेतना क्षेत्र को गतिशील बनाने में पराशक्ति के कितने ही सचेतन घटक हैं। इनमें सर्वोच्च स्तर के हैं-देव। जो ब्रह्म चेतना के अतीव निकट एवं उसके साथ जुड़े हुए माने जाते हैं। उनकी संरचना अपेक्षाकृत अधिक प्रत्यक्ष है। वे ईश्वर इच्छा व्यवस्था को कार्यान्वित करने में संदेश- वाहक की भूमिका निभाते हैं। असंतुलनों को सँभालते हैं। क्षतियों की पूर्ति करते हैं। अनौचित्य को औचित्य में बदलते हैं। जीवात्माएँ उनका आश्रय लेकर परम तत्त्व तक पहुँचने में सुविधा अनुभव करती हैं। सीढ़ियों पर पैर रखते हुए छत तक पहुँच जाना भी तो सरल पड़ता है। प्राणियों के संकटों एवं अभावों की पूर्ति के लिए वे ब्रह्मतत्त्व से आवश्यक समर्थता एवं सम्पन्नता उपलब्ध करके अभावग्रस्तों को उपलब्ध कराते रहते हैं। उनका प्रधान कार्य ही संतुलन बनाये रखना है। जब कभी उसमें बिगाड़ आता है, तो उसका समाधान करने के लिए उनकी दौड़-धूप विशेष रूप से क्रियाशील होती देखी जाती है। यह देव ही जब-तब अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं। समूची ब्रह्म सत्ता तो अपना व्यापक रूप यथावत् ही बनाये रहती है। निराकार को साकार नहीं बनना पड़ता। उस प्रयोजन को देवशक्तियाँ ही निपटा देती हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
  2. देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
  3. अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  4. अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
  5. पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
  6. तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
  7. सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
  8. सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
  9. हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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